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पूज्य पिता के सहज सत्य पर वार सुधाम , धरा , धन को,चले राम उनके , सीता भी उनकेपीछे सीता चलीं गहन वन कोको।उनके भी पीछे भी लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि तुम ‘‘तुम कहाँ ?’’विनित विनत वदन से उत्तर पाया तुम पाया—‘‘तुम मेरे सर्वस्व जहाँ।जहाँ।’’
सीता बोलीं कि ये ‘‘ये पिता की आज्ञा पर से सब छोड़ चले,पर देवर , तुम त्यागी बन कर बनकर,क्यों घर से मुँह मोड़ चले?’’उत्तर मिला कि आर्ये ‘‘आर्य्ये, बरबस बना न दो मुझको त्यागी,आर्य -चरण -सेवा में समझो मुझको भी अपना भागी।भागी।।’’
क्या ‘‘क्या कर्तव्य यही है भाई सीता ?’’लक्ष्मण ने सिर झुका लिया,आर्य ‘‘आर्य्य, आपके प्रति इस इन जन ने कब-कब क्या कर्तव्य किया?’’प्यार ‘‘प्यार किया है तुमने केवल !’’सीता यह कह मुस्काईंमुसकाईं,किन्तु राम की उज्जवल आँखें जैसे सफल सीप -सी भर आईं। *
चारु चंद्र की चंचल किरणें,
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