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जंगल बोला / अवतार एनगिल

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|रचनाकार=अवतार एनगिल
|संग्रह=मनखान आएगा / अवतार एनगिल
<poem>मैंने जंगल से कहा__
मेरी बगिया से बाहर लगा जंगला
तुम्हारी लक्ष्मण रेखा है
और फाटक उस पर बन्द कर
अन्दर आ गया

पर सामने सोफे पर
अपने कन्धों पर कम्बल ओढ़े
बैठा जंगल मुस्कुरा रहा था
उसने अपने नंगे पाँव
खाने की मेज़ तक फैला दिये थे
और
मेरे मुँह से बहती आग को अनदेखा कर
जंगल बोलाः
जब तुम अपना फाटक खोल
मेरी सीमा से आते हो
उधम मचाते हो
तब तुम्हारी लक्ष्मण रेखा कहाँ जाती है

...और देखो तो ज़रा---- कहकर
जंगल ने कँधों से
अपना कम्बल सरकाया...
दो कटे बाज़ू
मुझे घूर रहे थे

मुस्कुराकर वह बोला
देखते क्या हो
हाथ बढ़ाओ
ज़मीन से यह लबादा उठाओ
और मेरे कंधे ढँक दो।
</poem>
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