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{{KKRachna
|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
}}
<poem>

आके क़ासिद ने कहा जो, वही अकसर निकला।
नामाबर समझे थे हम, वह तो पयम्बर निकला॥

बाएगुरबत कि हुइ जिसके लिए खाना-खराब।
सुनके आवाज़ भी घर से न वह बाहर निकला॥

</poem>