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|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
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[[Category: शेर]]
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आके क़ासिद ने कहा जो, वही अकसर निकला।
नामाबर समझे थे हम, वह तो पयम्बर निकला॥
बाएगुरबत बाएगु़रबत कि हुइ हुई जिसके लिए खाना-खराब।
सुनके आवाज़ भी घर से न वह बाहर निकला॥
 
</poem>
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