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10:51, 12 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अवतार एनगिल
|संग्रह=मनखान आएगा /अवतार एनगिल
}}
<poem>इस जंतर-मंतर इमारत में
बेपनाह भीड़
अपने-अपने पत्थर उठाये
जाने कहां जा रही है
एकाएक
मठों
गुफाओं दरवाज़ों
रास्तों से
लाखों कटे हाथों वाले भिक्षु प्रकट होते हैं
ज़ाहिर है
कि इन्हें गुम्बद पहुँचना है
कोई नहीं जानता
कोई नहीं जानेगा
कि इन कटे हाथों तले
पूरे हाथ छिपाये ये तपस्वी
कब प्रकट हो जाएंगे
और तथाकथित तथ्यों की लकीरों में
खो जाएंगे
कुछ कमज़ोर बिन्दु
फिर
उठकर भागता है
उसी भीड़ में
एक अन्य 'मैं'
उठाये हुए एक पत्थर
कहीं पहुँचाने
या कहीं लगाने
जहां वह 'मैं' पहुंचता है
वहीं
उलझे फैली एक इमारत की
आयताकार तालबनुमा कमरे की
दक्षिणी सीढ़ियों में बिछी मेज़ों पर
चल रही है
काकटेल पार्टी
एकाएक
पलट
निकल
भागता है वह 'मैं
दोनों हाथों में अपना पत्थर उठाए
छाती से चिपकाये....
पर दरवाज़ा लाँघने से पहले
दांये बैठे एक लोलुप अधेड़ से
इशारा कर,कहता है:
मेरे मुंह से
यह तन्दूरी चिकन निकाल लो
मुझे अपना पत्थर उधर पहुँचाना है
---एक सपना
</poem>