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यात्री / अवतार एनगिल

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<poem>एक पागल मुसाफिर
कभी रास्तों पर
कभी बिना रास्तों के
चलता,चला जाता है

एक आवारा यात्री
चौंधियाती-धूप-सनी-सड़कों को मथता है
ढाबों के बैंचों पर बैठ
चपर-चपर खाता है
उठता है,चलता है
आता है, जाता है

एक सिरफिरा राही
रेतीले रास्तों पर
आँख के कोरों में
दो बूँद आँसू लिये
भागता है
भागता चला जाता है
'मैं'से

अरे,ओ मैं !
कल सुबह जब तुम अख़बार देखोगे
और नाश्ते की जुगाली करते हुए
अपना मस्तक ख़बरों से भरोगे
या वीडियोगन चलाकर
गीध की आँख में छेद करोगे
और करोगे
असंख्य नरमुण्डों की कुलबुलाहट का
अघोर महाभोज

ठीक उसी समय
सड़कों पर झुकते रक्तिम गुलमोहर
प्लास्टिक के फूलों से
उधार मांग रहे होंगे

'मैं' रे !
कल जब
धरती की गर्दिश के बावजूद
उसके पेट में बहती
लावे की नदियों के बावजूद
उसकी छाती पर उड़ रही होंगी
तुंद सर्द हवाएँ
और जेठ की समाप्त न होने वाली
तपती दोपहरों में
रेगिस्तानी विस्तारों पर भी
बरस रही होगी
घुमड़-घुमड़ नाचती
हिमालयी बर्फ

ठीक तब
रीतिकालीन ईंधन पर हंसते-हंसते
आ जाएंगे
तुम्हारी आँखों में आँसू

सुनो 'मैं' !
कल शाम
जब तुम अपनी थकी आँखों पर
मोटा चश्मा चढ़ा कर वीडियो टेप लगाकर
मुर्दा अतीत के पिरामिड देखोगे
पीछे खड़ी तूतिन ख़ामिन
तुम्हारी मूर्खता पर हंस रही होगी
सारा भूगोल अपना अर्थ खो चुका होगा
कालीदास की ख़ूबसूरत ऋतुएं
अपने लिबास बदल चुकी होंगी

अरे, ओ 'मैं' !
महाकाल की उस बेला में
तुम्हारा वर्तमान
जो हमारा भविष्य है
इश्तिहारों,समाचारों ,अख़बारों के
पहाड़ तले दबकर
मात्र गैस बर चुका होगा
और तुम्हारी कविता के जर्जर काग़ज़ की चिंदियां
टायलेट में बहाई जा चुकी होगी।
</poem>
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