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ड्रैकुला शहर में / अवतार एनगिल

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|रचनाकार=अवतार एनगिल
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<poem>बटवारे की वह
गंधाती लाश
जिसे हमने
वर्षों पहले
दफ़्न कर दिया था
कल रात
कब्र से निकलकर
श्मशान में टहलने लगी
सोते रह गये
भैरव बाबा
जोगी सिद्ध

और श्मशान से निकलकर
वह लाश
शहर में चलने लगी

यह कैसा मौसम आया
कि तूने और मैंने
उसी बदबूदार लाश को
गले लगाया है

सच तो यह है
कि हम दोनों
अपनी-अपनी मूर्खताओं के
पूरे-पूरे जिम्मेवार हैं
और
एकता की दोहाई देते हुए भी
एकता के गुनाहगार हैं

सुनो दोस्त
वक्त नहीं यह दोषारोपण का
इल्ज़ामों की फेहरिस्त काफी लम्बी है

यद रखो
नहीं बुझती आग से आग
नहीं भरता ज़ख्म से ज़ख्म

और भूलो मत
कि मृत्यु औ दुःख का
कोई दल नहीं होता
कोई पक्ष नहीं होता

आओ मित्र
कोशिश करें
इन ज़ख़्मों को भरें
मिलकर जियें
मिलकर मरें
देखते नहीं
वही शव
जिसे हमने वर्षों पहले
दफ़्न कर दिया था
कब्र से निकलकर
मेरे शहर के
गलियों बाज़ारों में
टहलने लगा है।
</poem>
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