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रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष,<br>
अंगना-अंग से लिपटे भी<br>
आतंक पर -अंक पर काँप रहे हैं<br>धनी, वज्र-गर्जन से , बादल!<br>त्रस्त नयन-सुख मुख ढाँप रहे है।<br>
जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर<br>
तुझे बुलाता कृषक अधीर,<br>
ऐ विप्लव के वीर!<br>
चूस लिया है उसका सार,<br>
हाड़-मात्र ही है आधार,<br>
ऐ जीवन के पारावार!<br><br>
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