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{{KKRachna
|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=सूरज के उगने तक / माधव कौशिक
}}
<poem>दुनिया वालो तुम क्या जानो हमने क्या-क्या देखा है।
खुली हुई आँखों से अक्सर सच्चा सपना देखा है।

पूरे का पूरा सावन भी प्यास बुझा कर हार गया,
नदी किनारे का हर बरगद इतना प्यासा देखा है।

इससे ज़्यादा तन्हाई की तन्हाई क्या होती है,
भीड़ भरे बाज़ारों में भी खुद को तन्हा देखा है।

आज धूप भी नर्म,मुलायम शबनम जैसी लगती है,
सुबह सवेरे आईने में किसका चेहरा देखा है।

मौसम की माली हालत का मालिक ही अब मालिक है,
हमने बिन पैरों के चलता खोटा सिक्का देखा है।

शायद कोई बच्चा मेरी बाँह पकड़कर साथ चले,
चौराहे पर आकर मैंने घर का रस्ता देखा है।

कस्तूरी-मृग की आँखों सी मेरी अंधी आँखों ने
रेगिस्तातो की मुट्ठी में बहता दहता देखा है।
</poem>
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