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04:53, 15 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=सूरज के उगने तक / माधव कौशिक
}}
<poem>नज़र अब आदमीयत की झुकी देखी नहीं जाती।
सड़क पर लाश लावारिस पड़ी देखी नहीं जाती।
तुम्हें तो सिर्फ इस घर के गुज़िश्ता कल से शिकवा है,
मगर हम से हो हालत आज की देखी नहीं जाती।
ज़रूरत है तो थोड़ी सी हवा,कुछ बूँद पानी की
घुटन से तिलमिलाती ज़िन्दगी,देखी नहीं जाती।
खुले आँखों से अंधियारे का सीना चीरने वालो,
कभी नंगी नज़र से रोशनी देखी नहीं जाती।
दबा लो आह होठों में,छिपा लो आँख में आँसू,
सभी चेहरों पे यह बेचारगी देखी नहीं जाती।
चलो अब हाथ की सारी लकीरों को मिटा डालें,
मुकद्दय् में लिखी यह बेबसी देखी नहीं जाती।
</poem>