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04:55, 15 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=सूरज के उगने तक / माधव कौशिक
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<poem>भरोसा क्या करे कोई तिजारत के हवालों का।
न सत्ता का यकें हमको न सता के दलालों का।
दिखाई भी नहीं देता हमें उगता हुआ सूरज,
अँधेरा तल्ख़ है इतना सवालों ही सवालों का।
तुम्हें कल रात सपने में ज़रा हंसते हुए देखा,
बहुत दिनों में नज़र आया मुझे चेहरा उजालों का।
शुरू से अंत तक सब चित्र नंगे, शब्द भी नंगे,
किसी वैश्या से बदतर हो गया हुलिया रिसालों का।
तुम्हारी आँख में आँसू चमकते हैं मगर ऐसे,
कि जैसे धूप में दमके कलश ऊँचे शिवालों का।
</poem>