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04:56, 15 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=सूरज के उगने तक / माधव कौशिक
}}
<poem>आँखों से बरसे अंगारे बर्फ गिरी थी आहों से।
मुमकिन हो तो बचकर रहना इन झूठी अफवाहों से।
उसकी अपनी छाती शायद छिलती होगी छूने से,
धरती का दुख दर्द कभी भी मत कहना हलवाहों से।
घर से चले मगर नहीं पहुँचे जाकर अपनी मंज़िल पर
उन लोगों की पूछ रहा हूँ खैर-खबर इन राहों से।
सूरज भी था चन्दा भी था,तारे भी थे दुनिया में,
लेकिन सब की सब तहजीबें रोशन हुई गुनाहों से।
उसकी अपनी मजबूरी है उसको चुप रहने दो,
साहिल के सारे अफसाने मत पूछो दरियाओं से।
</poem>