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04:57, 15 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=सूरज के उगने तक / माधव कौशिक
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<poem>ज़िन्दगी सबकी अगर है ज़र्द चेहरा शाम का।
आपके पेशे-नज़र है ज़र्द चेहरा शाम का।
देखता रहता है सबको सुर्खियों से झाँक कर,
आज की ताज़ा खबर है ज़र्द चेहरा शाम का।
धूप ढल जाए तो मंज़िल मिल भी जाये शाम को,
रास्ते का हमसफर है ज़र्द चेहरा शाम का।
सिर्फ़ कालिख़ में नहीं डूबी इबारत दर्द की,
खून से भी तर-ब-तर है ज़र्द चेहरा शाम का।
धड़कनों के साथ मिलकर हो न जायें धड़कनें,
देखने में बे असर है ज़र्द चेहरा शाम का।
कौन जाने आँधियाँ कब तोड़ दे सारा तिलिस्म,
ताश के पत्तों का घर है ज़र्द चेहरा शाम का।
</poem>