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05:02, 15 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=सूरज के उगने तक / माधव कौशिक
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<poem>
सन्नाटे में डूब गया जो दर्द अगर सन्नाटे का।
खामोशी से क़ट जाएगा यार सफर सन्नाटे का।
कहने वाले मन की बातें कह देते हैं आँखों से,
सुनने वाले सुन लेते हैं शोर मगर सन्नाटे का।
गाँवों की कच्ची खपरैलें नाच रही हैं मस्ती में,
अब भी भूखी चौपालों पर नहीं असर सन्नाटे का।
युगों-युगों से पूछ रहा हूँ कोई मुझे बताए तो,
किसने सीने पर रखा है यह पत्थर सन्नाटे का।
ऊँची आवाज़ों से कह दो बात करें तो चुपके से,
चुपके से आवाजों में घुसता है हर खंजर सन्नाटे का।
</poem>