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{{KKRachna
|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=सूरज के उगने तक / माधव कौशिक
}}
<poem>ख़त्म होता है सभी का रास्ता दहलीज़ पर।
आईये रख दें जला कर इक दिया दहलीज़ पर।

घर से बाहर पाँव कया निकले कि सब कुछ लुट गया,
अबके सारी बात जाकर सोचना दहलीज़ पर।

जो भी कहना है यहीं कह लीजिए दिल खोलकर,
आँख में आँसू लिए मत रोकना दहलीज़ पर।

गाँव की देहरी को छोड़े एक अरसा हो गया,
याद है अब तक किसी का देखना दहलीज़ पर।

जिसने अपनी शक्ल देखी सकपका कर रह गया,
जाने किसने रख दिया है आईना दहलीज़ पर।</poem>
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