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09:37, 16 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अवतार एनगिल
|संग्रह=सूर्य से सूर्य तक / अवतार एनगिल
}}
<poem>सुबह :
काले पर्वत के पीछे से
सिंदूरी कमंद लगा
चढ़ रहा है
नन्हा पर्वतारोही सूर्य
करता है जो
अपने से
अपने तक की अनादि यात्रा ।
और मैं
अभय,अनंत,अथाह अंतरिक्ष में
सूक्षम पंख फैला
सिन्दूरी गुलाब में खेल रहा हूँ
जानता हूँ
कि मेरे सपनों की यात्रा भी
मुझे धूप में मिला देगी
और किसी सर्दीली शाम का सूर्य
मुझे वापिस बीन लेगा।
दोपहर-1
भटियारन दोपहर
ब्रास के ख़ामोश पेड़
रक्तिम है मौन
बोलेगा कौन ?
बंध गया
चीख़ों के पहाड़ का खण्डित माथा
सुनाई देती नहीं
पगडण्डी पर चलते मुसाफिर की पदचाप
हार-हार जाते हैं शब्द
ढल गया है
मौन की भट्टी में
आवाज़ों का इस्पात ।
दोपहर-2
जेठ दुपहिरी
चुभी आंख में
एक शूल बन
होंठ सूख गये
रेगिस्तानी रेत सरीखे
आज सांस भी लेना मुश्किल
हुई शिथिल औ' धूप लेट गई
रंगहीन से बिस्तर बिछकर
रीती-रीती।
शाम
संध्या मछेरिन ने
फेंका है
रतनारे धागों का जाल
छटपटाई
सुरक्षित धूप की
पीताम्बरी मछलियां
अंत के सुन्दरम बोध में
झिलमिलाए
आंखों के तरल कांच।
रात :
अंधेरे की चन्द बूंदे
पारे सरीखी
मेरी मुट्ठी में थिरक रही हैं
और मन के काले गुम्बद में
रात का सन्नाटा गूंज रहा है
सच्चाई-सा।
निगाह के आर--अंधकार
निगाह के पार---अंधकार
जान लिया है आज
अंधी सड़कों के यात्री ने
कि अंधेरे से अंधेरे तक की यात्रा भी
ठेक उतनी ही है
जितनी कि सूर्य से सूर्य तक
कि कहीं कठिन है
धरती से सूर्य तक की यात्रा
पर बहुत आसान है
सूर्य से सूर्य तक का सफर ।</poem>