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{{KKRachna
|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=अंगारों पर नंगे पाँव / माधव कौशिक
}}
<poem>सिर्फ उन्हीं लोगों का चर्चा होता है अख़बारों में
वक़्त जिन्हें चिनवा देता है जीते जी दीवारों में ।

उसे बताओ सिवा धुएं के उसको और मिलेगा क्या
कब से घर को ढूंढ रहा है इन जलते अंगारों में ।

हाथों में हथकड़ी, पावों में बेड़ी पहने मनवाता
गुनाहगार सी खड़ी हुई है, सदियों से दरबारों में ।

इंसानी क़दरें रोकें या ग़ैरत उनको ललकारे
बिकने वाले बिक जाते हैं सरेआम बाज़ारों में।

सधी-सधाई आंखें जिसको बिल्कुल पकड़ नहीं पातीं
जाने ऐसा क्या होता है लोगों के किरदारों में।

मोसम ने भी आज उन्हीं को गुलशन का मुख़्तार चुना
कल तक जो चेहरे शामिल थे फूलों के हत्यारों में।
</poem>
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