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झूठा सच / रंजना भाटिया

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{{KKRachna
|रचनाकार=रंजना भाटिया
|संग्रह=
}}
<poem>चाहता है ..
कौन किसको कितना ..
कौन ,दिन -रात
बेकरार रहता है
बसती हैं आंखों में
छवि किसकी ..
और किसकी ...
एक हाँ सुनने को
यह दिल ...
हर लम्हा तडपता है

मन ही तो है..
जो है बावरा..
पा लेना चाहता है
सब कुछ ...

जैसे ही बंद करता है
एक "हाँ "मुट्ठी में..
वह बात ...
पलक झपकते ही
बन के हवा..
कहीं उड़ जाती है....
और दिल के आईने में
बनी एक आकृति
एक साया सा
बन के रह जाती है

तब ....
दिल नही चाहता मेरा
कि .....
मेरे लिखे लफ्जों में
कोई तुम्हे तलाश करे
साकार करे ...
उस झूठे सपने को
और उस "हाँ "को
कोई मेरे अतिरिक्त पढे !!
</poem>
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