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{{KKRachna
|रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी
|संग्रह=गुले-नग़मा / फ़िराक़ गोरखपुरी
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<poem>
ज़मी बदली, फ़लक बदला, मज़ाके-ज़िन्दगी<ref>जीवन की रुचि</ref> बदला
तमद्दुन<ref>संस्कृति</ref> के कदीम<ref>पुरातन</ref> अक़दार<ref>मूल्य</ref> बदले आदमी बदला।

ख़ुदा-ओ-अह्रमन बदले वो ईमाने-दुई<ref>द्वैतभाव</ref> बदला
हुदूदे-ख़ैरो-शर<ref>शुभ-अशुभ</ref> बदले, मज़ाके-काफ़िरी बदला।

नये इंसान का जब दौरे - ख़ुदनाआगही बदला
रमूज़े - बेखुदी बदले, तक़ाज़ा-ए-ख़ुदी बदला।

बदलते जा रहे हम भी दुनिया को बदलने में
नहीं बदली अभी दुनिया? तो दुनिया को अभी बदला।

नयी मंज़िल के मीरे-कारवाँ<ref>नेता</ref> भी और होते हैं
पुराने ख़िज़्रे-रह बदले वो तर्ज़े-रहबरी बदला।

कभी सोचा भी है, ऐ नज़्मे-कोहना<ref>पुरातन व्यवस्था</ref> के ख़ुदावन्दों<ref>स्वामियों</ref>
तुम्हारा हश्र क्या होगा, जो ये आलम कभी बदला।

इधर पिछले से अहले-मालो-ज़र पर रात भारी है
उधर बेदारी-ए-जमहूर<ref>जन-जागरण</ref> का अन्दाज़ भी बदला।

ज़हे-सोज़े-ग़मे-आदम, ख़ुशा साज़े-दिले-आदम
इसी इक शम्‍अ की लौ ने जहाने-तीरगी बदला।

नये मनसूर हैं, सदियों पुराने शैख़ो-क़ाज़ी हैं
न फ़तवे क़ुफ़्र के बदले, न उज्रे-दार ही बदला।

बताये तो बताये उसको तेरी शोख़ी-ए-पिनहाँ<ref>छिपी हुई शोख़ी (चंचलता)</ref>
तेरी चश्मे-तवज्जुह है तज्रे-बेरुख़ी बदला।

बफ़ैज़े-आदमे-ख़ाकी, ज़मी सोना उगलती है
इसी ज़र्रे ने दौरे-मह्‌रो-माहो-मुशतरी बदला।

सितारे जागते हैं, रात लट छटकाये सोती है
दबे पाँव किसी ने आके ख़ाबे-ज़िन्दगी बदला।

’फ़िराक़े’-हमनवा-ए-मीर-ओ-ग़ालिब<ref>’मीर’ व ’ग़ालिब’ की आवाज़ से आवाज़ मिलाने वाला</ref> अब नये नग़्मे
वो बज़्मे-ज़िन्दगी बदली वो रंगे-शाएरी बदला।

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</poem>
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