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18:54, 18 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्राण शर्मा
|संग्रह=सुराही / प्राण शर्मा
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<poem>
१०१
कोई पिये प्याले पर प्याला
कोई पिये केवल इक प्याला
जिसकी जितनी प्यास है होती
उतनी पिये यारो वह हाला
१०२
मस्ती में क्या ख़ाक जिएँगे
चाक जिगर के ख़ाक सिएँगे
उपदेशों से ग्रस्त हुए हैं
उपदेशक क्या ख़ाक पिएँगे
१०३
जीवन नाम है मधु पाने का
मस्ती के नग़मे गाने का
जाहिद का जीवन है कोई
जीवन तो है मस्ताने का
१०४
सुखदायक हर पल है प्यारे
सरिता सी कल-कल है प्यारे
अपने मस्त भरे जीवन में
मंगल ही मंगल है प्यारे
१०५
मस्ती का आलम रहने दे
मस्त हवाओं को बहने दे
यह मयखाना है प्यारे तू
दूर सियासत को रहने दे
१०६
साक़ी तेरा दोष नहीं है
मुझमें जो सन्तोष नहीं है
पीता हूँ हर रोज़ सुरा पर
भरता मन का कोष नहीं है
१०७
मदिरा इक लोरी जैसी है
मन पर जादू सा करती है
जब तक मैं मदिरा ना पी लूँ
मुझको नींद नहीं आती है
१०८
महफ़िल में दुक्खों के मारे
जीवन की हर डग पर सारे
केवय मय की बोतल पीकर
झूम उठे सारे के सारे
१०९
मस्ती के घेरों के घेरे
फैलाते हैं शाम-सवेरे
तन – मन को सुरभित करते हैं
मधु के भीगे मुक्तक मेरे
११०
खुद पीये और सबको पिलाये
यारों के संग रंग जमाये
ऐसा कैसे हो सकता है
’प्राण’ अकेला मधु पी जाये</poem>