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171-180 मुक्तक / प्राण शर्मा

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१७१
बेझिझक होकर यहाँ पर आईये
पीजिये मदिरा हृदय बहलाइए
नेमतों से है भरा मधु का भवन
चैन जितना चाहिए ले जाइए
१७२
फिर न रह जाए अधूरी कामना
फिर न करना कोई भी शिकवा-गिला
वक़्त है अब भी सुरा पी ले ज़रा
फिर न कहना बेसुरा जीवन रहा
१७३
जब भी जीवन हो दुःख से सामना
हाथ साक़ी का सदा तू थामना
खिल उठेगी दोस्त तेरी ज़िंदगी
पूरी हो जायेगी तेरी कामना
१७४
मैं नहीं कहता पियो तुम बेहिसाब
अपने हिस्से की पियो लेकिन जनाब
ये अनादर है सलीके मयकदा
बीच में ही छोड़ना आधी शराब
१७५
ऐसा मस्ताना बना दे गी शराब
दिन में ही तारे दिखा देगी शराब
बंद बोतल में न नाचे ख़ुद भले
पर तुम्हे पल में नचा देगी शराब
१७६
पड़ गए हो तंग क्यों इससे जनाब
ये नहीं रखते हैं प्यालों का हिसाब
ख़त्म कर देते हैं पल में बोतलें
पीने वाले पीते हैं खुल कर शराब
१७७
कौन तू मधु में छुपी मस्ती लिए
मुख पे घूँघट लाल झीना सा लिए
आ निकल सूरत दिखा वरना अभी
तुझ को पीकर झूम जायेंगे
प्रिये
१७८
आज मधु में नाचती देखी परी
ज्यों सुगन्धित बाग़ की इक हो कली
लाल अवगुंठन सुनहरा मखमली
रूप दिखलाती कि इठलाती हुई
१७९
साक़िया तुझ को सदा भाता रहूँ
तेरे हाथों से सुरा पाता रहूँ
इच्छा पीने की सदा ज़िंदा रहे
और मय खाने में मैं आता रहूँ
१८०
मैं रहूँ चल कर जहाँ मधु धाम हो
पास उनके जिनको मधु से काम हो
ज़िंदगी में एक इच्छा है यही
हर समय मुँह पर लगा बस जाम हो</poem>
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