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अच्छा लगता है / सुधा ओम ढींगरा

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{{KKRachna
|रचनाकार=सुधा ओम ढींगरा
}}
<poem>बचपन में,
गर्मियों की रातों में,
खुली छत पर
सफेद चादरों से
ढकी चारपाइयों पर
लेटकर किस्से- कहानियाँ सुनना
और तारों भरे आकाश में
सप्तऋषि और ध्रुव तारा ढूँढना
अच्छा लगता था......

चंद्रमा में छिपी आकृति
आकार लेती नज़र आती,
कभी उसकी माँ सूत कातती लगती
तो कभी हमारी दादी दिखती.
मरणोपरांत लोग तारे हो जाते हैं
बड़े- बूढ़ों की बात को सच मान
तारों में अपने बजुर्गों को ढूँढना
वो दादा, वो दादी और वो नानी को देखना
अच्छा लगता था......

विज्ञान,
बौद्धिक विकास
और भौतिक संवाद ने
बचपन की छोटी-छोटी
खुशियाँ छीन लीं.
बचपन का विश्वास
परिपक्वता का अविश्वास बन
अच्छा नहीं लगता है....

हर इन्सान में,
एक बच्चा बसता है.
अपनी होंद का एहसास दिला
कभी -कभी वह
बचपन में लौट जाने,
बचपन दोहराने को
मजबूर करता है.
वो मासूमियत, वो भोलापन
फिर से ओढ़ लेने को जी चाहता है.
तारों भरे आकाश में
बिछुड़ गए अपनों को फिर से
ढूँढना अच्छा लगता है.....

मेरे शहर में तारे,
कभी -कभी झलक दिखलाते हैं.
खुले आकाश में फैले तारों को,
हम तरस -तरस जाते हैं.
जब कभी निकलते हैं तो
फीकी सी मुस्कान दे इठलाते हैं.
पराये-पराये से लगते हैं,
फिर भी उनमें अपनों को
खोजना अच्छा लगता है.......
</poem>
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