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क्यों न घोलें कानों में / प्राण शर्मा
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05:56, 29 दिसम्बर 2009
|रचनाकार=प्राण शर्मा
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<poem>क्यों न घोलें कानों में रस मदभरी पुरवाईयाँ
बज रही हैं घर सजन के सुबह से शहनाईयाँ
हर घड़ी आँखें बिछाने वाले सबकी राहों में
क्यों न भाएँगी सभी को आपकी पहुनाइयां</poem>
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