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परछाइयां / रंजना भाटिया

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{{KKRachna
|रचनाकार=रंजना भाटिया
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<poem>रंग निखरा प्यार के अदब से
कोई रूपसी घुँघट में सिमटती रही

बरसे कहीं प्रीत से भरे बादल
भीगने की आस यहाँ दिल में पलती रही

सारे सपने खिले हैं आँखों में
फिर भी आँख क्यूँ कोई बरसती रही

मिले थे दो दिल प्यार की छाँव में
नयनों में एक प्यास क्यूँ तरसती रही

चाँद खेलता रहा बादलों संग लुका-छिपी
एक आग क्यूँ दिल में जलती-बुझती रही

छिप गयी परछाइयाँ रात के अंधेरे में
रोशनी दिल में डरती रही झरती रही

बरसी तो थी, रात भर चाँदनी की ओस
फिर भी मेरे रूह की ज़मीन क्यों तड़पती रही

ज़िंदगी ख़ाली हाथ, मौत ही पाएगी
सब कुछ समेटने की चाहा क्यूँ दिल को रही

अपने वज़ूद को तरसता रहा हर शख्स यहाँ
मुखौटे लगा के हर शख़्सियत जीती रही

देवता बनने की चाह में इंसान भी न बन पाए लोग
एक शैतानी फ़ितरत सबके दिलों को डसती रही

रास्ता वही है जो ले जाए मंज़िल तलक़
भटकन दिलो की यूँ ही हर बार राही को छलती रही

रात भर बरसी बूँदे मिल गयी ख़ाक में
भटकी हुई रात रोशनी को तरसती रही

लिखते रहे अल्फ़ाज़ रात भर नाम किसका
यह किसकी याद दिल में दबे पाँव चलती रही

रूह क़ैद है बदन में, बदन इस जहाँ में क़ैद है
ज़िंदगी इसी सिलसिले को ले कर आगे बढ़ती रही

क्यूँ चले आते हैं दिन क्यूँ चली आती हैं रातें
ऐसे कई सवालो का जवाब मेरी ज़िंदगी बुनती रही !! </poem>
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