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06:33, 29 सितम्बर 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=आरज़ू लखनवी
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<poem>
हर दाने पै इक क़तरा, हर क़तरे पै इक दाना।
इस हाथ में सुमरन है, उस हाथ में पैमाना॥
कुछ तंगियेज़िन्दाँ से दिलतंग नहीं वहशी।
फिरता है निगाहों में, वीरना-ही-वीराना॥
</poem>