{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=केदारनाथ सिंह}}<poem>माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है<br />पानी गिर नहीं रहा<br />पर गिर सकता है किसी भी समय<br />मुझे बाहर जाना है<br />और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है<br /><br />यह तय है<br />कि मैं बाहर जाउंगा तो माँ को भूल जाउंगा<br />जैसे मैं भूल जाउंगा जाऊँगा उसकी कटोरी<br />उसका गिलास<br /> वह सफ़ेद साडी साड़ी जिसमें काली किनारी है<br />मैं एकदम भूल जाउँगा<br />जाऊँगा जिसे इस समूची दुनियाँ दुनिया में माँ<br /> और सिर्फ मेरी माँ पहनती है<br /><br />उसके बाद सर्दियाँ आ जायेंगी<br />और मैने मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं<br />तो माँ थोडा थोड़ा और झुक जाती है<br />अपनी परछाई की तरफ<br />ऊन उन के बारे में उसके विचार<br />बहुत सख्त सख़्त है<br />मृत्यु के बारे में बेहद कोमल<br /> पक्षियों के बारे में<br /> वह कभी कुछ नहीं कहती<br />हाँलाकि हालाँकि नींद में<br /> वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है<br /><br />जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है<br />तो उठा लेती है सुई और तागा<br />मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं<br />तो सूई सुई चलाने वाले उसके हाँथ<br /> हाथदेर रात तक<br />समय को धीरे -धीरे सिलते हैं<br /> जैसे वह मेरा फ़टा हुआ कुर्ता हो<br /><br />पिछले साठ बरसों से<br />एक सूई सुई और तागे के बीच<br />दबी हुई है माँ<br />हालांकि हालाँकि वह खुद एक करघा है<br />जिस पर साठ बरस बुने गये हैं<br />धीरे -धीरे तह पर तह<br />खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे<br /> साठ बरस<br /poem>