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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"}}{{KKCatKavita}}</poem>आज ठंढक ठंडक अधिक है।
बाहर ओले पड़ चुके हैं,
एक हफ्ता हफ़्ता पहले पाला पड़ा था--
अरहर कुल की कुल मर चुकी थी,
हवा हाड़ तक बेध जाती है,
गेहूँ के पेड़ ऎंठे खड़े हैं,
खेतीहरों में जान नहीं,
मन मारे दरवाजे दरवाज़े कौड़े ताप रहे हैं
एक दूसरे से गिरे गले बातें करते हुए,
कुहरा छाया हुआ।
उँपर से हवाबाज हवाबाज़ उड़ गया।ज़मीनदार का सिपाही लट्ठ कंधे पर ड़ालेडाले
आया और लोगों की ओर देख कर कहा,
'डेरे पर थानेदार आये आए हैं;
डिप्टी साहब नें चंदा लगाया है,
एक हफ्ते हफ़्ते के अंदर देना है।
चलो, बात दे आओ।
कौड़े से कुछ हट कर
चलते सिपाही को देख कर खडा हुआ,
और भौंकने लगा,
करुणा से बंधु खेतिहर को देख-देख कर।</poem>
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