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ग्राम श्री / सुमित्रानंदन पंत

182 bytes removed, 19:15, 12 अक्टूबर 2009
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{{KKCatKavita}}<poem>फैली खेतों में दूर तलक<br>मख़मल की कोमल हरियाली,<br>लिपटीं जिस से रवि की किरणें<br>चाँदी की-सी उजली जाली !<br><br>
रोमाँचित-सी लगती वसुधा<br>आयी जौ-गेहूँ में बाली<br>अरहर सनई की सोने की<br>किंकिणियाँ हैं शोभाशाली<br>उड़ती भीनी तैलाक्त गन्ध<br>फूली सरसों पीली-पीली,<br>लो, हरित धरा से झाँक रही<br>नीलम की कलि, तीसी नीली,<br>रँग-रँग के फूलों में रिलमिल<br>हँस रही संखिया मटर खड़ी,<br>मख़मली पेटियों-सी लटकी<br>छीमियाँ, छिपाये बीज लड़ी !<br><br>
अब रजत-स्वर्ण मंजरियों से<br>लद गयी आम्र-तरु की डाली,<br>झर रहे ढाँक, पीपल के दल,<br>हो उठी कोकिला मतवाली !<br>महके कटहल, मुकुलित जामुन,<br>जंगल में झरबेरी झूली,<br>फूले आड़ू, नीबू, दाड़िम,<br>आलू, गोभी, बैगन, मूली !<br><br>
पीले मीठे अमरूदों में<br>अब लाल-लाल चित्तियाँ पड़ीं<br>पक गये सुनहले मधुर बेर,<br>अँवली से तरु की डाल जड़ीं !<br>लहलह पालक,महमह धनिया,<br>लौकी औ' सेम फली,फैलीं !<br>मख़मली टमाटर हुए लाल,<br>मिरचों की बड़ी हरी थैली !<br>गंजी को मार गया पाला,<br>अरहर के फूलों को झुलसा,<br>हाँका करती दिन-भर बन्दर<br>अब मालिन की लड़की तुलसा !<br>बालाएँ गजरा काट-काट,<br>कुछ कह गुपचुप हँसतीं किन-किन<br>चाँदी की-सी घण्टियाँ तरल<br>बजती रहती रह-रह खिन-खिन!<br><br>
बगिया के छोटे पेड़ों पर<br>सुन्दर लगते छोटे छाजन,<br>सुन्दर गेहूँ, की बालों पर<br>मोती के दानों से हिमकन !<br>प्रात: ओझल हो जाता जग,<br>भू पर आता ज्यों उतर गगन,<br>सुन्दर लगते फिर कुहरे से<br>उठते-से खेत, बाग़, गॄह वन !<br><br>
लटके तरुओं पर विहग नीड़<br>वनचर लड़कों को हुए ज्ञात,<br>रेखा-छवि विरल टहनियों की<br>ठूँठे तरुओं के नग्न गात !<br>आँगन में दौड़ रहे पत्ते,<br>धूमती भँवर-सी शिशिर-वात,<br>बदली छँटने पर लगती प्रिय<br>ऋतुमती धरित्री सद्य-स्नात !<br><br>
हँसमुख हरियाली हिम-आतप<br>सुख से अलसाए-से सोये,<br>भीगी अँधियाली में निशि की<br>तारक स्वप्नों में-से-खोये,-<br>मरकत डिब्बे-सा खुला ग्राम-<br>जिस पर नीलम नभ-आच्छादन-<br>निरुपम हिमान्त में स्निग्ध-शान्त<br>निज शोभा से हरता न-मनज ! <br><br/poem>
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