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|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
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चिर प्रणम्य यह पुष्य अहन, जय गाओ सुरगण,
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन !
नव भारत, फिर चीर युगों का तिमिर-आवरण,
तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन !
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,
आज खुले भारत के संग भू के जड़-बंधन !
चिर प्रणम्य यह पुष्य अहनशान्त हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण, जय गाओ सुरगण,<br>आज अवतरित हुई मुक्त चेतना भू पर नूतन भारत की यह करती घोषण !<br>नव भारत, फिर चीर युगों का तिमिरआम्र-आवरणमौर लाओ हे ,कदली स्तम्भ बनाओ,<br>तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन !<br>पावन गंगा जल भर के बंदनवार बँधाओ , सभ्य हुआ अब विश्वजय भारत गाओ, सभ्य धरणी का जीवन,<br>स्वतन्त्र भारत गाओ ! उन्नत लगता चन्द्र कला स्मित आज खुले भारत के संग भू के जड़हिमाँचल, चिर समाधि से जाग उठे हों शम्भु तपोज्वल ! लहर-बंधन लहर पर इन्द्रधनुष ध्वज फहरा चंचल जय निनाद करता, उठ सागर, सुख से विह्वल !<br><br>
शान्त हुआ अब युग-युग धन्य आज का भौतिक संघर्षणमुक्ति-दिवस गाओ जन-मंगल,<br>मुक्त चेतना भारत लक्ष्मी से शोभित फिर भारत शतदल ! तुमुल जयध्वनि करो महात्मा गान्धी की यह करती घोषण जय, नव भारत के सुज्ञ सारथी वह नि:संशय !<br>आम्रराष्ट्र-मौर लाओ नायकों का हे ,कदली स्तम्भ बनाओपुन: करो अभिवादन,<br>पावन गंगा जल भर के बंदनवार बँधाओ जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन ! स्वर्ण-शस्य बाँधो भू वेणी में युवती जन,<br>जय भारत गाओबनो वज्र प्राचीर राष्ट्र की, स्वतन्त्र भारत गाओ वीर युवगण!<br>उन्नत लगता चन्द्र कला स्मित आज हिमाँचललोह-संगठित बने लोक भारत का जीवन,<br>चिर समाधि से जाग उठे हों शम्भु तपोज्वल शिक्षित सम्पन्न क्षुधातुर नग्न-भग्न जन!<br>लहरमुक्ति नहीं पलती दृग-लहर पर इन्द्रधनुष ध्वज फहरा चंचल<br>जल से हो अभिसिंचित, जय निनाद करतासंयम तप के रक्त-स्वेद से होती पोषित! मुक्ति माँगती कर्म वचन मन प्राण समर्पण, उठ सागरवृद्ध राष्ट्र को, सुख से विह्वल वीर युवकगण, दो निज यौवन!<br><br>
धन्य आज का मुक्ति-दिवस गाओ जन-मंगल,<br>भारत लक्ष्मी से शोभित फिर भारत शतदल !<br>तुमुल जयध्वनि करो महात्मा गान्धी की जय,<br>नव भारत के सुज्ञ सारथी वह नि:संशय !<br>राष्ट्र-नायकों का हे, पुन: करो अभिवादन,<br>जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन !<br>स्वर्ण-शस्य बाँधो भू वेणी में युवती जन,<br>बनो वज्र प्राचीर राष्ट्र की, वीर युवगण!<br>लोह-संगठित बने लोक भारत का जीवन,<br>हों शिक्षित सम्पन्न क्षुधातुर नग्न-भग्न जन!<br>मुक्ति नहीं पलती दृग-जल से हो अभिसिंचित,<br>संयम तप के रक्त-स्वेद से होती पोषित!<br>मुक्ति माँगती कर्म वचन मन प्राण समर्पण,<br>वृद्ध राष्ट्र को, वीर युवकगण, दो निज यौवन!<br><br> नव स्वतंत्र भारत, हो जग-हित ज्योति जागरण,<br>नव प्रभात में स्वर्ण-स्नात हो भू का प्रांगण !<br>नव जीवन का वैभव जाग्रत हो जनगण में,<br>आत्मा का ऐश्वर्य अवतरित मानव मन में!<br>रक्त-सिक्त धरणी का हो दु:स्वप्न समापन,<br>शान्ति प्रीति सुख का भू-स्वर्ग उठे सुर मोहन!<br>भारत का दासत्व दासता थी भू-मन की,<br>विकसित आज हुई सीमाएँ जग-जीवन की!<br>धन्य आज का स्वर्ण दिवस, नव लोक-जागरण!<br>नव संस्कृति आलोक करे, जन भारत वितरण!<br>नव-जीवन की ज्वाला से दीपित हों दिशि क्षण,<br>नव मानवता में मुकुलित धरती का जीवन !<br/poem>
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