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खिड़की मत बंद करो / रवीन्द्र दास

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सदियों से कह रहा हूँ

कि मत बंद करो खिड़की

खुला रहने दो दरवाजा

कि हर आने-जाने वाला नहीं होता बटमार ही

कि कभी न कभी तो आएगा

तुम्हारी कहानी का किरदार

जो तुम्हें झुलायेगा सपनों की डोर से

कभी तो झांकेगा

तुम्हारे दिल की गहराइयों में

कि भींग जाएगा तुम्हारा अन्तरंग

हृदय हो उठेगा विह्वल

प्रेम से सराबोर होकर तुम

याद करोगे मझे भी

भले ही न देखा हो मुझे आँखें उठाकर

महसूस जरुर किया होगा तुम्हारे दिल ने

मैं सराय का मुसाफिर हूँ

भूल गया है फर्क अपने- परायों का

नहीं बन पाया मैं तुम्हारा 'तुम'

रह गया अन्यपुरुष सर्वनाम

फ़िर भी , ओ मेरे अनाम

मत करो बंद अपनी खिड़की

उसी रस्ते आएगा तुम्हारा सपना ।
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