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स्त्री का सोचना एकान्त में / कात्यायनी
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21:50, 14 अक्टूबर 2009
|रचनाकार=कात्यायनी
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न जाने क्या सूझा
एक दिन स्त्री को
खेल-खेल में भागती हुई
भाषा में समा गई
छिपकर बैठ गई।
उस दिन
तानाशाहों को
नींद नहीं आई रात भर।
उस दिन
खेल न सके कविगण
अग्निपिण्ड के मानिंद
तपते शब्दों से।
भाषा चुप रही सारी रात।
रुद्रवीणा पर
कोई प्रचण्ड राग बजता रहा।
}}
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अनिल जनविजय
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