{{KKRachna
|रचनाकार=सोहनलाल द्विवेदी
}} {{KKCatKavita}}<poem>चल पड़े जिधर दो ड़ग, मग में<br>चल पड़े कोटि पग उसी ओर;<br>पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि<br>गड़ गये कोटि दृग उसी ओर,<br><br>
जिसके शिर पर निज धरा हाथ<br>उसके शिर रक्षक कोटि हाथ,<br>जिस पर निज मस्तक झुका दिया<br>झुक गये उसी पर कोटि माथ;<br><br>
हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु!<br>हे कोटिरूप, हे कोटिनाम!<br>तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि<br>हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम!<br><br>
युग बढ़ा तुम्हारी हंसी देख<br>युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,<br>तुम अचल मेखला बन भू की<br>खींचते काल पर अमिट रेख;<br><br>
तुम बोल उठे, युग बोल उठा,<br>तुम मौन बने, युग मौन बना,<br>कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर<br>युगकर्म जगा, युगकर्म तना;<br><br>
युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक,<br>युग-संचालक, हे युगाधार!<br>युग-निर्माता, युग-मूर्ति! तुम्हें<br>युग-युग तक युग का नमस्कार!<br><br>
तुम युग-युग की रूढियां तोङ<br>रचते रहते नित नई सृष्टि,<br>उठती नवजीवन की नींवे<br>ले नवचेतन की दिव्य- दृष्टि;<br><br>
धर्माडंबर के खंडहर पर<br>कर पद-प्रहार, कर धराध्वस्त<br>मानवता का पावन मंदिर,<br>निर्माण कर रहे सृजनव्यस्त!<br><br>
बढ़ते ही जाते दिग्विजयी!<br>गढ़ते तुम अपना रामराज,<br>आत्माहुति के मणिमाणिक से<br>मढ़ते जननी का स्वर्णताज!<br><br>
तुम कालचक्र के रक्त सने<br>दशनों को करके पकड़ सुदृढ़,<br>मानव को दानव के मुंह से<br>ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़;<br><br>
पिसती कराहती जगती के <br> प्राणों में भरते अभय दान,<br>अधमरे देखते हैं तुमको,<br>किसने आकर यह किया त्राण?<br><br>
दृढ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से<br>तुम कालचक्र की चाल रोक,<br>नित महाकाल की छाती पर<br>लिखते करुणा के पुण्य श्लोक!<br><br>
कंपता असत्य, कंपती मिथ्या,<br>बर्बरता कंपती है थरथर!<br>कंपते सिंहासन, राजमुकुट<br>कंपते, खिसके आते भू पर,<br><br>
हे अस्त्र-शस्त्र कुंठित लुंठित,<br>सेनायें करती गृह-प्रयाण!<br>रणभेरी तेरी बजती है,<br>उङता है तेरा ध्वज निशान!<br><br>
हे युग-दृष्टा, हे युग-स्त्रष्टा,<br>पढते कैसा यह मोक्ष-मंत्र?<br>इस राजतंत्र के खंडहर में<br>उगता अभिनव भारत स्वतन्त्र! <br><br/poem>