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श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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समर्पण
वासुदेवमयी सृष्टि की
उस सत्ता को
जिसने जीवन की
चिलचिलाती धूप में,
छाँव बन कर ठाँव दी।
--मृदुल कीर्ति
 
''विनय''
श्याम! नै वेणु बजाई घनी,
शंख 'पाञ्चजन्य' गुंजाय करे।
अब आनि बसौ मोरी लेखनी में
ब्रज भाषा में गीता सुनाऔ हरे।
</poem>
* [[अध्याय १ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति]]
* [[अध्याय १ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति]]