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साध / सुभद्राकुमारी चौहान

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|रचनाकार=सुभद्राकुमारी चौहान
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<poem>
मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।
भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।।
मृदुल कल्पना वितत विजन के चल पँखों शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर। बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम तुम दोनों आसीन। <br>भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।। <br><br>की पर्ण-कुटीर।।
वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर। <br>कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता का जल। बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर।। <br><br>न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।।
कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों। का जल। <br>पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।। <br><br>तरु-दल की शीतल छाया में चल समीर-सा गाते हों।।
सरल काव्यसरिता के नीरव प्रवाह-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों। <br>बढ़ता हो अपना जीवन। तरु-दल की शीतल छाया हो उसकी प्रत्येक लहर में चल समीर-सा गाते हों।। <br><br>अपना एक निरालापन।।
सरिता के नीरव प्रवाह-सा बढ़ता हो अपना जीवन। <br>हो उसकी प्रत्येक लहर रचे रुचिर रचनाएँ जग में अपना एक निरालापन।। <br><br>अमर प्राण भरने वाली। दिशि-दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली।।
रचे रुचिर रचनाएँ जग में अमर प्राण भरने वाली। <br>दिशि-दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली।। <br><br> तुम कविता के प्राण बनो मैं उन प्राणों की आकुल तान। <br> निर्जन वन को मुखरित कर दे प्रिय! अपना सम्मोहन गान।। <br><br/poem>
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