वह कौन रोता है वहाँ-<br>
इतिहास के अध्याय पर,<br><br>
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है<br>
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;<br>
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;<br><br>
जो आप तो लड़ता नहीं,<br>
कटवा किशोरों को मगर,<br>
आश्वस्त होकर सोचता,<br>
शोनित शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?<br><br>
::और तब सम्मान से जाते गिने<br>::नाम उनके, देश-मुख की लालिमा<br>::है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;<br>::देश की इज्जत बचाने के लिए<br>::या चढा जिनने दिये निज लाल हैं।<br><br>
ईश जानें, देश का लज्जा विषय<br>
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।<br><br>
::विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में<br>::मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;<br>::चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,<br>::फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।<br><br>
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,<br>
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!<br><br>
::लड़ना उसे पड़ता मगर।<br>::औ' जीतने के बाद भी,<br>::रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;<br>::वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में<br>::विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता।<br><br>
उस सत्य के आघात से<br>
है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।<br><br>
::सहसा हृदय को तोड़कर<br>::कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-<br>::'नर का बहाया रक्त, हे भगवान! मैंने क्या किया<br>::लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।<br><br>
इस दंश क दुख भूल कर<br>
विजय पाकर बहाता अश्रु है।<br><br>
::यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में<br>::नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,<br>::पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का<br>::वज्रांग पाण्डव भीम क मन हो चुका परिशान्त था।<br><br>
और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,<br>
केश जो तेरह बरस से थे खुले।<br><br>
::और जब पविकाय पाण्डव भीम ने<br>::द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर<br>::हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो<br>::पाँच नन्हें बालकों के मुल्य-सी।<br><br>
कौरवों का श्राद्ध करने के लिए<br>
शेष जब था रह गया कोई नहीं<br>
एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।<br><br>
[[कुरुक्षेत्र / प्रथम सर्ग / भाग 2|अगला भाग >>]]