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13:55, 18 अक्टूबर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=श्रीकांत वर्मा
}}<poem>स्वेद में डूबे हुए सब जन्म पर पछता रहे हैं
पालने में शिशु।
चौंक या खिसिया रहे या पेड़ पर फन्दा लगा कर
आत्महत्या कर रहे हैं
शहर के मैदान।
उमस में डूबे हुए हैं घर सबेरा
घोंसले और घास
आ रहा या जा रहा है बक रहा या झक रहा है
निरर्थक कोई किसी के पास।
मृत्युधर्मी प्रेम अथवा प्रेमधर्मी मृत्यु;
अकारण चुम्बन तड़ातड़
अकारण सहवास।
हारकर सब लड़ रहे हैं
हारकर सब पूर्वजों से
झगड़ते पत्तों सरीखे झर रहे हैं
घूम कर प्रत्येक छत पर
उतर आया शहर का आकाश
हर दिवस मौसम बदलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं
हर घड़ी दुनिया बदलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
भाग कर त्यौहार में
हैं युद्ध की तैयारियों में व्यस्त
एक दुनियाँ से निकल कर दूसरी में जा रहे हैं
युद्ध, चुम्बन, पालने ले।
स्वेद में डूबे हुए सब जन्म पर पछता रहे हैं।</poem>