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लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही,<br>
जीवितों के कान पर मरता हुआ,<br>
और उन पर व्यंगव्यंग्य-सा करता हुआ-<br>
'देख लो, बाहर महा सुनसान है<br>
सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।'<br><br>
हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग व्यंग्य है,<br>
कौन सुन समझे उसे? सब लोग तो<br>
अर्द्ध-मृत-से हो रहे आनन्द से;<br>
किन्तु, इस उल्लास-जड़ समुदाय में<br>
एक ऐसा भी पुरुष है, हो जो विकल<br>
बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा<br>
मग्न चिन्तालीन अपने-आप में।<br><br>
दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से!<br>
मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे;<br>
हर्ष क स्वर जीवितों का व्यंग व्यंग्य है।"<br><br>
स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा-<br>
दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा,<br>
जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,<br>
अर्थ जिस्क जिसका अब न कोई याद है।<br><br>
"आ गये हम पार, तुम उस पार हो;<br>
यह पराजय या कि जय किसकी हुई?<br>व्यंगव्यंग्य, पश्चाताप, अन्तर्दाह का<br>
अब विजय-उपहार भोगो चैन से।"<br><br>
'किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी<br>
शेष क्या है? व्यंग ही तो भग्य का?<br>
चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे<br>
तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया?<br><br>
'सत्य ही तो, मुष्टिगत करना जिसे<br>
चाहता ठाथा, शत्रुओं के साथ ही<br>
उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में<br>
व्यंगव्यंग्य, पश्चाताप केवल छोड़कर।<br><br>
'यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ,<br>