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आनि सँजोग परै / सूरदास

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राग सारंग
<poem>आनि सँजोग परै<br>भावी काहू सौं न टरै।<br>कहँ वह राहु, कहाँ वे रबि-ससि, आनि सँजोग परै॥<br>मुनि वसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पचि लगन धरै।<br>तात-मरन, सिय हरन, राम बन बपु धरि बिपति भरै॥<br>रावन जीति कोटि तैंतीसा, त्रिभुवन-राज करै।<br>मृत्युहि बाँधि कूप मैं राखै, भावी बस सो मरै॥<br>अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बन निकरै।<br>द्रुपद-सुता कौ राजसभा, दुस्सासन चीर हरै॥<br>हरीचंद-सौ को जग दाता, सो घर नीच भरै।<br>जो गृह छाँडि़ देस बहु धावै, तऊ वह संग फिरै॥<br>भावी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै।<br>सूरदास प्रभु रची सु हैहै, को करि सोच मरै॥<br><br/poem>
भावी बलवान है अर्थात् विधि का लिखा अमिट है। इसी तथ्य को सूरदास ने इस पद में दर्शाया है। वह कहते हैं - होनहार (प्रारब्ध) किसी से भी टलती नहीं। कहाँ वह राहु और कहाँ वे सूर्य-चंद्र (बहुत दूरी है इनमें)। किंतु इनका संयोग भी (ग्रहण के समय) आ पड़ता है। वसिष्ठ मुनि विद्वान् तथा ज्ञानी थे और उन्होंने बहुत श्रम से, सँभालकर भगवान् राम के राज्याभिषेक मुहूर्त निश्चित किया; किंतु (परिणाम यह हुआ कि) श्रीराम के पिता महाराज दशरथ की मृत्यु हुई, सीताजी का हरण हुआ, श्रीराम को वनवासी वेष धारणकर वनवास का कष्ट झेलना पड़ा। रावण ने तैंतीसों करोड़ देवताओं को जीत लिया था और त्रिभुवन पर राज्य कर रहा था, मृत्यु को भी बाँधकर उसने कुएँ में बंद कर रखा था, किंतु प्रारब्धवश वह भी मारा गया। अर्जुन के तो (स्वयं) श्रीहरि ही सारथी थे, पर उन्हें भी वन में निकलना (वनवास भेागना) पड़ा। राजसभा में द्रौपदी का वस्त्र दु:शासन ने खींचा (यद्यपि द्रौपदी श्रीकृष्ण की परम भक्ता थी)! संसार में हरिश्चन्द्र के समान कौन दानी होगा, पर उन्हें नीच के घर (चाण्डाल के यहाँ) सेवा करनी पड़ी। यदि कोई घर छोड़कर बहुत-से देशों में दौड़ता (घूमता) फिरे, तो भी उसका प्रारब्ध उसके साथ ही घूमता है। तीनों लोकों में देवता, मनुष्य और जितने भी देहधारी हैं, सभी होनहार (प्रारब्ध) के वश में हैं। अत: सूरदासजी कहते हैं कि प्रभु ने जो विधान किया है; वही होगा, (तब) चिन्ता करके कौन मरता रहे।
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