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उधो, मन न भए दस बीस / सूरदास

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|रचनाकार=सूरदास
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[[Category:पद]]
राग रामकली
  <poem>
उधो, मन न भए दस बीस।
 
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
 
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
 
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
 
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
 
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥
</poem>
को करोड़ों वर्ष रख सकती हैं।"
`सकल जोग के ईस' क्या कहना, तुम तो योगियों में भी शिरोमणि हो। यह व्यंग्य है।
 
 
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