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जो अनय का था विरोधी, पाण्डवों का मित्र था।<br><br>
::और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में<br>::क्लीव-सा देखा किया लज्जा-हरण निज नारि का,<br>::(द्रौपदी के साथ ही लज्जा हरी थी जा रही<br>::उस बड़े समुदाय की, जो पाण्डवों के साथ था)<br>::और तूने कुछ नहीं उपचार था उस दिन किया;<br>::सो बता क्या पुण्य था? य पुण्यमय था क्रोध वह,<br>::जल उठा था आग-सा जो लोचनों में भीम के?<br><br>
कायरों-सी बात कर मुझको जला मत; आज तक<br>
जा रहा हूँ विश्व से चढ युद्ध के ही यान पर।<br><br>
::त्याग, तप, भिक्षा? बहुत हूँ जानता मैं भी, मगर,<br>::त्याग, तप, भिक्षा, विरागी योगियों के धर्म हैं;<br>::याकि उसकी नीति, जिसके हाथ में शायक नहीं;<br>::या मृषा पाषण्ड यह उस कापुरुष बलहीन का,<br>::जो सदा भयभीत रहता युद्ध से यह सोचकर<br>::ग्लानिमय जीवन बहुत अच्छा, मरण अच्छा नहीं<br><br>
त्याग, तप, करुणा, क्षमा से भींग कर,<br>
काम आता है बलिष्ठ शरीर ही।<br><br>
::और तू कहता मनोबल है जिसे,<br>::शस्त्र हो सकता नहीं वह देह का;<br>::क्षेत्र उसका वह मनोमय भूमि है,<br>::नर जहाँ लड़ता ज्वलन्त विकार से।<br><br>
कौन केवल आत्मबल से जूझ कर<br>
आत्मबल का एक बस चलता नहीं।<br><br>
::जो निरामय शक्ति है तप, त्याग में,<br>::व्यक्ति का ही मन उसे है मानता;<br>::योगियों की शक्ति से संसार में,<br>::हारता लेकिन, नहीं समुदाय है।<br><br>
कानन में देख अस्थि-पुंज मुनिपुंगवों का<br>
::दैत्य-वध का था किया प्रण जब राम ने;<br>
"मातिभ्रष्ट मानवों के शोध का उपाय एक<br>
::शस्त्र ही है?" पूछा था कोमलमना वाम ने।<br>
नहीं प्रिये, सुधर मनुष्य सकता है तप,<br>
::त्याग से भी," उत्तर दिया था घनश्याम ने,<br>
"तप का परन्तु, वश चलता नहीं सदैव<br>
::पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।" <br><br>