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|रचनाकार=नागार्जुन
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<poem>
जाने, किधर से
 
चुपचाप आकर
 
हाथी सामने लेट गए हैं,
 
जाने किधर से
 
चुपचाप आकर
 
हाथी सामने बैठ गए हैं !
 
पहाड़ों-जैसे
 
अति विशाल आयतनोंवाले
 
पाँच-सात हाथी
 
सामने--बिल्कुल निकट
 
जम गए हैं
 
इनका परिमण्डल
 
हमें बार-बार ललचाता रहेगा
 
छिड़ने-छेड़ने के लिए
 
सदैव बुलावा देता रहेगा !
 
लो, ये गिरी-कुंजर
 
और भी विशाल होने लगे !
 
लो, ये दूर हट गए,
 
लो, ये और भी पास आ रहे,
 
लो, इनका लीलाधरी रूप
 
और भी फैलता जा रहा,
 
लेकिन, ये गुमसुम क्यों हैं ?
 
अरे, इन्होंने तो
 
ढक लिया अपने आपको
 
हल्की-पतली पारदर्शी चादरों से
 
झीने-झीने, 'लूज'
 
झीनी-झीनी, लूज बिनावटवाली
 
वो मटमैली ओढ़नी
 
बादलों को ढक लेगी अब
 
अब फुहारोंवाली बारिश होगी
 
बड़ी-बड़ी बूँदें तो यह
 
शायद कल बरसेंगे...
 
शायद परसों...
शायद हफ़्ता बाद...
शायद हफ़्ता बाद...
'''रचनाकाल : 1984 में रचित
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