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{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसीदास
}}{{KKCatKavita}}<poem>यह बिनती रहुबीर गुसाईं।
और आस बिस्वास भरोसो, हरौ जीव-जड़ताई॥१॥
चहौं न सुगति, सुमति-संपति कछु रिधि सिधि बिपुल बड़ाई।
यहि जगमें, जहॅं लगि या तनुकी, प्रीति प्रतीति सगाई।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों, होहिं सिमिति इक ठाई॥४॥
</poem>
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