|संग्रह=अंकित होने दो / अजित कुमार
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
बादल पराये हैं ।
:इसीलिये शायद ये जन-मन को भाये हैं ।
:::::पल भर रहेंगे ये,
::::::दुख नहीं सहेंगे ये,
:भार लिये धाराधर मुझ पर झुक आये हैं ।
:::::अपने जो: देते सुख,
::::::दूसरे भले दें दुख-
:आँसू के कन मैंने इनसे ही पाये हैं ।
:::बादल पराये हैं ।
आसमान अपना है ।
:जैसे मुझको वैसे इसको भी तपना है ।
:::::भागे तो जाय कहाँ,
::::::मुक्ति भला पाय कहाँ,
:उसको तो इसी जगह मरना है, खपना है ।
::::::और भी समानता
::::::मैं हूँ पहचानता-
:आसमान भी, मैं भी : सब कैसा सपना है ।
:::आसमान अपना है ।
</poem>