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तुम्हारी खोज में / अजित कुमार
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06:24, 1 नवम्बर 2009
|संग्रह=अंकित होने दो / अजित कुमार
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तमाम लोगों के बीच
मैं तुम्हें खोजता हू।
जाते हुओं में और
आते हुओं में,
हँसते, चुप बैठे, रोते,
गाते हुओं में
केवल तुम्हें खोजता हूँ ।
किन्तु कैसी विवशता है कि
सब में
मैंने
केवल अपने को पाया है ।
भीड़ों में धँसकर
या बाँहों में कसकर,
उठकर या गिरकर,
चलते-चलते रुककर
लोग …
उनकी विवशता थी कि
मेरी ही तरह
वे भी तुम्हें खोजते थे ।
अरे । उन सब में
मैने
तुम्हें नहीं,
बार-बार अपने को पाया है ।
</poem>
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