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अभिलाषा / अजित कुमार

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|संग्रह=अंकित होने दो / अजित कुमार
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लगा कि
 
:सिरहाने बैठीं तुम
 
:मेरे ऊलझे बालों को
 
:कोमल-कोमल सुलझाती हो,
 
:माथे को सहलाती हो,
 
:मधुर-मधुर कुछ गाती हो …
 
:सुनते-सुनते सो जाऊँ मैं
 
:मुग्ध स्वप्न में खो जाऊँ मैं,
 
:सिर्फ़ तुम्हारा हो जाऊँ मैं ।
 
::काश, इसी अभिलाषा तक
 
::अपने को सीमित रक्खा होता ।
 
:कितु आह,
 
:मैंने तुमको छूना चाहा, अपनाना चाहा ।
 
:जो तुमको दे दिया, उसे पर्याप्त न पाकर,
 
:पाना चाहा ।
 
::तो मेरी फैली बाँहों में शून्य घिरा,
 
::सिकुड़े माथे, उलझे बालों में दबी चेतना पर
 
::सहसा यह बोध तिरा :
 
::जिसको मृदु लोरी समझा था,
 
:वह दूर रेडियो पर बजती कर्कश, निर्जीव प्रभाती थी ।
 
:जिसको ‘अपनाना’’ जाना था,
 
:वह मेरा एक बहाना था ।
 
:जीवन जिसको माने बैठा,
 
:वह, सचमुच, महज़ फ़साना था ।
:अब भी नहीं
 
:विह्वल उन नयनों के घिरे हुए मेघ,
 
::अनकौंधी बिजलियाँ,
 
:दृश्य : चुप-चुप झर-झर का ।
 
:व्याकुल उन प्राणों का तरंगाकुल सागर्।
 
::छटपटाती मछलियाँ,
 
:स्व: लहरों पर पछाड़ खाती लहर का ।
 
:तप्त उस जीवन का विराट हहराताअ मरु,
 
::दहकती शिलायें …
 
:आह । कैसा है तुम्हारा वक्ष, अब भी नहीं दरका ।
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