|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
‘दर्द’ तुमने कहा जिसको
और यों दुखती हुई रग जान ली
मैंने अभी तक सहा जिसको ।
::उसीको-
हाँ, छिपाने के लिये उसको
गीत गाये थे,
अधूरे और पूरे गीत गाये थे ।
जान ही जब लिया तुमने
शेष और भला बचा क्या ।
दर्द के अतिरिक्त हमने
सहा याकि रचा भला क्या ।
::कहीं कुछ भी नहीं :
::केवल प्यास, केवल आग ।
::धब्बे, चिन्ह, बेबस दाग
यही थे-
जिनको बहाने के लिये आँसू छिपाये थे ।
तुम्हींने यह भी कहा था-
::‘मिटाने पर मिट न जाये
::दर्द यह ऐसा नहीं है ।
::शर्त लेकिन एक है-
::उस दर्द में मत रमो ।
::देखो।
::पाल खोलो, उठाओ लंगर,
::चलो-
::दुखती हुई रग के सदृश यह द्वीप त्यागो ।‘
तुम्हींने हमसे कहा था-
::‘अरे, जागो ।‘
और उस कहने तथा
खुद भी बहुत सहने के कारन
मुक्ति की जब घड़ी आई-
::स्वत: बन्दी बना था जिस द्वीप में
::उससे विलग हो, पाल खोले
::मुक्त नाविक ने
::उधर … उस द्वीप को जाती लहर पर
पुष्प अंजलि से बहाये थे ।
आज वह सब व्यक्त है
जिसको छिपाने के लिये …
छिपा देने के लिये कुल गीत गाये थे ।
आज सचमुच मुक्त है
जिसको बहाने के लिये …
बहा देने के लिये आँसू छिपाये थे ।
आज तो वह त्यक्त है
वह दर्द भी : वह द्वीप भी …
वही जिस तक पुष्प अंजलि से बहाये थे ।
</poem>