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पुनरावृत्तियाँ / अजित कुमार

75 bytes removed, 15:28, 1 नवम्बर 2009
|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
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<poem>
'''1
(रात के पिछले पहर में
 
स्वप्न टूटा ।
 
दीप की लौ आखिरी-सा
 
उस समय था
 
भोर का तारा टिमकता ।
 
चाँद की टूटी लहर में
 
तैरती-सी दिख गयीं अरुणाभ किरनें …)
 
--बार-बार मैंने यह सोचा :
 
चलो, आज से नयी ज़िन्दगी शुरू हुई ।
 
::एक लड़ाई लड़ी, खतम की
 
आगे की मंज़िल, पहले की मंज़िल से
 
है कुछ तो भिन्न, भिन्न, और शायद विच्छिन्न ।
तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष ।
तबसे बीत गये कितने ही लम्बे-आड़े-तिरछे वर्ष ।
लेकिन पाता हूं-
 
अब भी हैं : वही, वही, वे ही संघर्ष ।
 
जो पहले था, वही आज हैं-
 
वही स्वप्न, वे ही आदर्श ।
 
'''2
 
(हाय । कैसी थी कहानी ।
 
अश्रु के भीगे कणों से,
 
प्यार के मीठे क्षणों से रची
 
वह कैसी कहानी ।
 
कौन जाने कब सुनी थी,
 
कहाँ की थी, और किसकी ?
 
किन्तु अब भी बची
 
वह कैसी कहानी ?…)
 
-कितनी बार किया यह निश्चय :
 
अब किताब को पढकर रोना खत्म हुआ ।
 
एक उम्र थी: नहीं रही ।
 
अब किताब को पढकर सिर्फ़ विचारेंगे,
 
बिसरा देंगे ज़्यादातर, थोड़ा-सा मन में धारेंगे ।
 
::::लेकिन यह सब नहीं हुआ ।
 
::::उसको ‘कृत्रिम’ कहा अगर,
 
::::‘यह’ ज़्यादा कृत्रिम जान पड़ा ।
 
::::सहज बनूँ कैसे ?
 
:::::उधेड़बुन यही शुरु से थी :
 
:::::अब भी ।
 
'''3
 
(कितनी अकेली राह थी,
 
कैसा अकेला साथ था ।
 
बेहद थके, डगमग क़दम ।
 
लेकिन
 
कहाँ वह हाथ था—
 
जो बढे आगे, थाम ले । …)
 
--हुआ नहीं कोई भी अपना ।
 
नहीं टूटता पर वह सपना ।
 
बार-बार जो सोच रहे थे हम
 
कि अकेले ही रह लेंगे ।
 
चलो, अकेले ही रह लेंगे ।
 
बार-बार वह झूठा निकला :
 
एक न एक चाँद मुस्काया किया,
 
ज्वार बनकर मैं उमड़ा ।
 
'''4
 
(राग का जादू हिरन पर छा गया ।
 
वह कुलाँचें मारनेवाला
 
खिंचा-सा आ गया…)
 
--कई बार यह हुआ कि
 
अब संगीत सुनेंगे कभी नहीं ।
 
मोहक जो संगीत कहाता : मुझको
 
::सिर्फ़ उबाता है ।
 
गहराई से खींच, धरातल पर मुझको
 
::ले आता है ।
 
::लेकिन जब भी, जब भी
 
::काँपे थरथर-थरथर तार,
 
::और उमड़ी-लहराई स्वर की करुणा-धार
 
काँपने लगे होंठ हर बार,
 
धड़कने लगे प्राण के तार ।
'''5
 
(एक घर था
 
और उसके द्वार में ताला जड़ा था ।
 
बन्द घर को कौन खोले ।
 
स्तब्धता में कौन बोले । …)
 
--ऊँचे शिखरों के प्रति मेरी वृहत कल्पना
 
बार-बार रह गई सिर्फ़ टेढी-मेढी, सँकरी गलियों तक
 
::इनसे बाहर हटकर, उठकर
 
::किसी अपरिचित ऊँचाई तक जाने की
 
::जो साध बड़ी थी,
 
::उसके आगे एक अजब दीवार…
 
 
'''1
…एक बार का सोचा-समझा
 
बार-बार क्यों सच लगता ?
 
बीच-बीच में ‘झूठ’ समझकर भी
 
क्यों उसमें मन रमता ।
 
आज : ‘झूठ’, कल : ‘सच’ दिखनेवाली माया का अन्त कहाँ ?
 
'''2
स्वप्न वहाँ हैं
 
और यहाँ पर परिणति है ।
 
कृत्रिम उधर
 
और आवेगों की क्यों इधर अपरिमिति है ?
 
'''3
 
कौन कहाँ से आया
 
इसका तो कुछ भी आभास नहीं ।
 
एक मुझी में इतना सब कुछ था
 
 
यह भी विश्वास नहीं ।
 
'''4
 
क्यों दुहराया तुमने उसको
 
कहो, उसे क्यों दुहराया ?
 
भूल नहीं पाये क्यों इसको ?
 
भूलो, अब तो भूलो सब ।
 '''
जो दीवारें थीं लोहे की,
 
वे दीवारें हैं लोहे की,
 
जैसी थीं वे, वैसी ही हैं ।
 
-ऊँचे सिखर किन्तु अब उतने ऊँचे नहीं रहे ।
 
पुनरावर्तन, प्रत्यावर्तन किसने नही सहा।
 
लेकिन
 
लौटे हुए व्यक्ति के लिये
 
शिखर तक जाना
 
उतना दुर्लभ नहीं रहा ।
</poem>
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