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चुभते ही तेरा अरुण बान!
:बहते कन कन से फूट फूट,
:मधु के निर्झर से सजल गान।
इन कनक रश्मियों में अथाह,
लेता हिलोर तम-सिन्धु जाग;
बुदबुद से बह चलते अपार,
उसमें विहगों के मधुर राग;
:::बनती प्रवाल का मृदुल कूल,
:::जो क्षितिज-रेख थी कुहर-म्लान।
नव कुन्द-कुसुम से मेघ-पुंज,
बन गए इन्द्रधनुषी वितान;
दे मृदु कलियों की चटक, ताल,
हिम-बिन्दु नचाती तरल प्राण;
:::धो स्वर्णप्रात में तिमिरगात,
:::दुहराते अलि निशि-मूक तान।
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