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शरद / अज्ञेय

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[[Category:कविताएँ]]
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सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी
गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी
दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब
ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी
सिमट गयी फिर नदी, सिमटने बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली शरद की धूप में चमक आयी <br>नहा-निखर कर हो गयी है मतवाली गगन झुंड कीरों के बदन में फिर नयी एक दमक आयी <br>अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब <br>ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी <br><br>झर रही है प्रान्तर में चुपचाप लजीली शेफाली
बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली <br>शरद बुलाती ही रही उजली कछार की धूप में नहाखुली छाती उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बक-निखर कर हो गयी है मतवाली <br>पाँती झुंड कीरों के अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते <br>गाज, बाज, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी थी झर रही है प्रान्तर में चुपचाप लजीली शेफाली <br><br>शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती
बुलाती ही रही उजली कछार की खुली छाती <br>मालती अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बकउसके रेशमी फन्दे में शुभ्र चाँदनी पकड़ पाती! घर-पाँती <br>भवन-प्रासाद खण्डहर हो गये किन-किन लताओं की जकड़ में गाजगन्ध, बाजवायु, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी थी <br>शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती <br><br>चाँदनी, अनंग रहीं मुक्त इठलाती!
मालती अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती <br>कहीं उसके रेशमी फन्दे में शुभ्र चाँदनी पकड़ पाती! <br>घर-भवन-प्रासाद खण्डहर हो गये किन-किन लताओं की जकड़ में <br>गन्ध, वायु, चाँदनी, अनंग रहीं मुक्त इठलाती! <br><br> साँझ! सूने नील में दोले है कोजागरी का दिया <br> हार का प्रतीक - दिया सो दिया, भुला दिया जो किया! <br> किन्तु शारद चाँदनी का साक्ष्य, यह संकेत जय का है <br> प्यार जो किया सो जिया, धधक रहा है हिया, पिया! <br><br/poem>
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