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बाँगर और खादर / अज्ञेय

97 bytes removed, 18:53, 1 नवम्बर 2009
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=अरी ओ करुणा प्रभामय / अज्ञेय
 
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{{KKCatKavita}}बाँगर में<brpoem>बाँगर में राजाजी का बाग है,<br>चारों ओर दीवार है<br>जिस में एक ओर द्वार है,<br>बीच-बाग़ कुआँ है<br>:::बहुत-बहुत गहरा।<br>और उस का जल<br>मीठा, निर्मल, शीतल।<br>कुएँ तो राजाजी के और भी हैं<br>-एक चौगान में, एक बाज़ार में-<br>:::पर इस पर रहता है पहरा।<br><br> खादर में<br>राजाजी के पुरवे हैं,<br>मिट्टी के घरवे हैं,<br>आगे खुली रेती के पार<br>:::सदानीरा नदी है।<br>गाँव के गँवार<br>उसी में नहाते हैं,<br>कपड़े फींचते हैं,<br>आचमन करते हैं,<br>डाँगर भँसाते हैं,<br>उसी से पानी उलीच<br>पहलेज सींचते हैं,<br>और जो मर जायें उन की मिट्टी भी<br>:::वहीं होनी बदी है।<br><br> कुएँ का पानी<br>राजाजी मँगाते हैं,<br>:::शौक़ से पीते हैं।<br>नदी पर लोग सब जाते हैं,<br>उस के किनारे मरते हैं<br>:::उसके सहारे जीते हैं।<br><br> बाँगर का कुआँ<br>राजाजी का अपना है<br>लोक-जन के लिए एक<br>कहानी है, सपना है<br><br> खादर की नदी नहीं<br>किसी की बपौती की,<br>पुरवे के हर घरवे को<br>
गंगा है अपनी कठौती की।
</poem>
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